बदहाल कृषि अर्थव्यवस्था (Agricultural Economy) का राजनीतिक अर्थशास्त्र

Agricultural Economy: एक जमाना था, जब कृषि का अर्थव्यवस्था में बोलबाला हुआ करता था. लोगों के लिए खेती ही जिंदगी चलाने का जरीया और जीवन जीने का तरीका दोनों होती थी. कृषि व्यवस्था का विकास अपनेआप में एक प्रगतिशील घटना थी. लेकिन यूरोप में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद धीरेधीरे कृषि की अहमियत कम होती गई और उस की जगह नए उद्योगधंधों ने ले ली.

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यूरोप का आधुनिकीकरण जब तीसरी दुनिया के देशों में पहुंचा, तो उन की अर्थव्यवस्था जो उस समय कृषि आधारित थी, के लिए कहर साबित हुआ. गुलामी के कारण इन देशों का पूरा उत्पादन यूरोप के विकसित कारखानों की भूख मिटाने वाला कच्चा माल बन कर रह गया.

भारत की हालत भी अन्य गुलाम देशों से कोई खास अलग नहीं रही. उसे 200 सालों तक अपने कृषि उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा कच्चे माल के रूप में इंगलैंड के उद्योगधंधों के लिए निर्यात करना पड़ा. अंगरेजों ने न केवल भारत को लूटा, बल्कि भारतीयों की जरूरतों को भी नजरअंदाज किया, जिस के कारण कई बार भुखमरी तक की नौबत आ गई. हालात का अंदाजा चंपारण में किसानों से जबरदस्ती नील की खेती कराने से लगाया जा सकता है.

जब साल 1947 में अंगरेजों से भारत को आजादी मिली, तो खेती की हालत खराब थी. यहां के उद्योगधंधों का भी ठीक से विकास नहीं हुआ था. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कृषि व्यवस्था और उद्योगधंधों में सुधार लाने की कोशिशों का दावा किया गया, पर हकीकत में इन सब कोशिशों से भी कृषि की हालत में कोई खास सुधार देखने को नहीं मिला. वहीं दूसरी तरफ भूसुधार आंदोलनों की असफलता के कारण अंगरेजों के समय में होने वाले किसान आंदोलन आजादी के बाद भी देश के तमाम हिस्सों में उठते रहे हैं. इस की झलक तेलंगाना के महान किसान विद्रोह से ले कर आज के किसान आंदोलनों में देखी जा सकती है.

Bad Agricultural Economy

आमतौर पर हरित क्रांति को कृषि के सुधार क्षेत्र में एक ऐतिहासिक कदम माना जाता है, जिस से देश के कुल अनाज उत्पादन में काफी इजाफा देखा गया, पर छोटे और मंझोले किसानों के लिए यह बेकार साबित हुई. महंगे खादबीजों और उन्नत मशीनों जैसे टै्रक्टर और सिंचाई के यंत्रों ने बड़े किसानों का काम बहुत हद तक आसान कर दिया. अब उन की फसलों के उत्पादन में काफी इजाफा देखा गया, पर वहीं दूसरी ओर इन सब यंत्रों का इस्तेमाल और महंगे खादबीज खरीदना छोटे किसानों के बूते की बात नहीं थी, जिस से वे पहले से ज्यादा पिछड़ते गए.

कृषि के लिए सब से बुरा दौर तो तब शुरू हुआ, जब साल 1991 में भारत ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीति की ओर कदम बढ़ाया. खेती की पहले से खराब हालत किसानों के लिए फांसी का फंदा बनती गई.

खेतीबारी के तौरतरीके अब पूरी तरह से बदल गए. कृषि की लागत आसमान छूने और कर्ज समय पर न चुकाए जाने के कारण, किसानों पर कर्ज की रकम बहुत ज्यादा हो गई, जो किसानों की औकात से बाहर हो गई.

साल 1995 के बाद के आंकड़े देखें तो वे काफी खराब हैं. सचाई यह है कि किसानों के आत्महत्या के मामले काफी बढ़े हैं. भारत की कुल आबादी के 70 से 72 फीसदी लोग खेती पर निर्भर माने जाते हैं.

जब ऐसी हालत में कृषि पर संकट बढ़ेगा, तो उस पर निर्भर लोगों के जीवन पर संकट आना लाजिम है. सरकारी आंकड़ों की ही बात करें तो साल 1995 से साल 2003 के बीच औसतन हर साल 15400 किसानों के आत्महत्या के मामले सामने आए हैं. वहीं साल 2004 से साल 2012 के बीच इन की संख्या 16000 से ऊपर रही है. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि हकीकत में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या इन आंकड़ों से कहीं ज्यादा है.

नहीं आते दिखाई दे रहे किसानों के अच्छे दिन : मौजूदा सरकार का पूंजीपतियों की ओर बढ़ता झुकाव किसानों के लिए घातक है. उस के द्वारा समाज में राष्ट्र व धर्म के नाम पर जो आग फैलाई जा रही है, वह किसानों को भी अपने लपेटे में ले लेगी.

यह एक सचाई है कि कृषि में खेतीबारी के साथसाथ पशुपालन भी जुड़ा रहता है. जहां खेती नहीं होगी, वहां पशुपालन भी मुश्किल होता है और बिना पशुधन खेती करना कठिन होता है. किसानों को दोनों से आर्थिक लाभ मिलता है. लेकिन जब से बीफ बैन के साथसाथ अन्य मीट पर रोक लगाने को राष्ट्रीय मुद्दा बनाया गया है, तब से पशुपालन का काम बिगड़ गया है.

खेती और पशुपालन में जो संतुलित संबंध था, वह अब बिगड़ने लगा है. एक ओर जहां गाय, भैंस, बकरी, मुरगी वगैरह पालने वालों का धंधा चौपट होने पर है, वहीं इस से मांस के कारोबारियों की हालत भी खराब हो गई है.

Bad Agricultural Economyजबजब किसानों की आत्महत्या और आंदोलन के मुद्दे जोर पकड़ते हैं, तो कई प्रकार के सुझाव सामने आते हैं, जैसे एक किसान आयोग की स्थापना की जाए, स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू किया जाए या किसानों को एक तय वेतन दिया जाए, लेकिन दिक्कत यह है कि भारत के राजनीतिक आकाओं ने यहां के दलाल पूंजीपतियों के दबाव में आ कर देश को वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के आगे इतना गिरवी रख दिया है कि वे चाह कर भी जरूरी कदम नहीं उठा सकते.

अब सवाल उठता है कि क्या और कोई रास्ता नहीं है किसानों के सामने खुदकुशी करने या पुलिस की गोलियों से मरने के अलावा न केवल किसानों का ही, बल्कि हर भारतीय का फर्ज बनता है कि एक सामूहिक बड़े जन आंदोलन को खड़ा किया जाए, जो भारत को इस पूंजीवादी गुलामी के शिकंजे से बाहर निकालने में कामयाब हो, जिस से न केवल किसानमजदूरों के हालात सुधरेंगे, बल्कि तालीम और रोजगार के क्षेत्र में भी आम नागरिक के लिए रास्ते खुलेंगे.

Dairy Farming : गरमियों में दूध को कैसे बढ़ाएं

Dairy Farming : गरमियों में गायभैंसों के दूध की मात्रा कम हो जाती है. ऐसा क्यों होता है? यों तो गरमियों में चारे की कमी का सामना करना पड़ता है, जिस का असर दूध में पड़ता ही है. दूध की कमी की वजह से गरमियों में दूध का दाम बढ़ जाना भी कोई खास बात नहीं है. पर क्या महज चारे की कमी ही इस दूध के उत्पादन में कमी के लिए जिम्मेदार है? इसे समझने के लिए हमें पशु के बदन को समझना पड़ेगा.

चाहे गाय हो या फिर भैंस वे मौसम में होने वाले ठंडेगरम के बदलाव के हिसाब से अपने बदन की गरमी को एकसा बनाए रखना जानते हैं. मौसम के उतारचढ़ाव का असर वे अपने बदन पर नहीं होने देते?हैं. अब जरा सोचिए, जाड़ों में जब बाहर का मौसम ठंडा होता है और बदन गरम होत है, तो बदन की गरमी लगातार बदन से निकल कर बाहर जाती रहती है.

बदन के अंदर पैदा होने वाली गरमी में कमी हो तो बदन को ठंड लगती है. ठंड से बचने के लिए बदन की गरमी को बाहर जाने से रोकने के लिए बदन को किसी कपड़े से ढकना, सिकुड़ कर बैठना या फिर झुंड में एकसाथ बैठना आदि किया जा सकता है.

इस के ठीक उलट गरमी के मौसम में जब मौसम का पारा बदन के पारे से ज्यादा होना शुरू हो जाता है, तो उस का असर शरीर पर होना शुरू हो जाता है, नतीजतन शरीर का पारा बढ़ जाता है. दूसरी ओर बदन के अंदर भोजन पचने के दौरान भी गरमी पैदा होती रहती है. इस तरह बदन के अंदर की गरमी व बाहर से शरीर के अंदर आने वाली गरमी बदन का पारा बढ़ाने में मदद करती है.

लिहाजा हालात से निबटने के लिए जानवर ज्यादा पानी पी कर, अपनी सांस लेने की गति को बढ़ा कर, छायादार जगह में बैठ कर, बदन को पानी से भिगो कर या फिर बदन से पसीना बहा कर बदन के सामान्य पारे को बनाए रखने की कोशिश करता है. पर यदि वह इन सब के बाद भी बदन के पारे को सामान्य रखने में असफल हो जाता है, तो उस पर गरमी का असर नजर आने लगता है. यहां यह कहना ठीक होगा कि सूखी गरमी के मौसम के मुकाबले उमस वाली गरमी जानवर को ज्यादा तकलीफ देती है और दूध उत्पादन पर ज्यादा असर डालती है.

अब इन हालात में जानवर के बदन के पास माहौल से आने वाली गरमी को कम करने का कोई तरीका तो होता नहीं है, लिहाजा उस का बदन अपने अंदर खाना पचाने में पैदा होने वाली गरमी को कम करने की कोशिश खुद ही करता है. वास्तव में बदन के अंदर खाना पचाने का काम सूक्ष्म जीवों द्वारा किया जाता है और इस काम में बेहद गरमी पैदा होती है. इस गरमी की मात्रा को कम करने के लिए बदन खुद ही भूख को कम कर देता है, लिहाजा जानवर खाना कम कर देते हैं. इस तरह बदन खाने की मात्रा कम कर के अपने सामान्य पारे को बनाए रखने की कोशिश करता है. वास्तव में पशु का कम खाना खाना ही इस बात को जाहिर करता है कि पशु गरमी की चपेट में आ गया है. ऐसे हालात में पशु एक तरफ सुस्त लगने लगता है, तो दूसरी ओर कम चारा खाने की वजह से अपने दूध उत्पादन को भी कम कर देता है.

Dairy Farming

मौसम के इस खराब असर की वजह से गायभैंसों के दूध का उत्पादन 50 फीसदी तक भी घट सकता है. सूखी गरमी के मुकाबले जुलाईअगस्त की नमी वाली गरमी ज्यादा नुकसानदायक है. पारे की 32 डिगरी सेंटीग्रेड से 38 डिगरी सेंटीग्रेड के बीच की हालत से ही गरमी का बुरा असर पड़ना शुरू हो जाता है और यदि साथ में मौसम की नमी 50 फीसदी से 90 फीसदी के बीच हो तो हालत और भी खराब हो जाती है.

अगर इस से भी ज्यादा गरमी हो तो पशु बेचैनी जाहिर करने लगता है और मुंह से सांस लेना शुरू कर देता है. इसी के साथ पशु की खाने की चाहत घट जाती है और वह छायादार जगह की तलाश करता है. पशु तेज सांसों के साथ लार भी ज्यादा बनाता है और ज्यादा पानी पीने लगता है. बेचैनी की वजह से पशु बैठने के बजाय खड़े रहना ज्यादा पसंद करता है. इन हालात में दूध का उत्पादन घटता चला जाता है.

यही नहीं, वे पशु जिन के ब्यांत के आखिरी 3 महीने गरमी के असर में बीतते हैं, उन के बच्चों का ब्यांत के समय का वजन घट जाता है. पशु का खुद का वजन भी कम हो जाता है. नतीजतन पशु अपनी अगली ब्यांत में 12 फीसदी तक कम दूध का उत्पादन कर सकते हैं. कृत्रिम गर्भाधान पर भी गरमी का खासा असर पड़ता है और गर्भाधान होने की उम्मीद 10 फीसदी से 20 फीसदी तक घट जाती है.

इन तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए यह बेहद जरूरी है कि पशुओं को गरमी के कहर से बचा कर रखा जाए ताकि दूध उत्पादन में कमी के साथसाथ होने वाले दूसरे नुकसानों से किसान बच सकें.

Dairy Farming

कुछ छोटीछोटी बातें हैं, जिन की मदद से गरमी के बुरे असर को कुछ हद तक कम किया जा सकता है:

* पशु द्वारा चारा कम खाने की हालत में उस के खाने में अनाज/दाना की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए.

* अनाज को पचाने में चारा पचाने के मुकाबले कम गरमी पैदा होती है, इसलिए पशु को गरमी से राहत मिलती है.

* पशु को छायादार जगह पर बांधना चाहिए.

* हर पशु के पास ठंडा पानी मौजूद होना चाहिए, ताकि वह अपनी जरूरत के मुताबिक पानी पी सके.

* पशु को ठंडे पानी से नहलाना चाहिए. इस से उस के बदन का पारा कम हो जाता है.

* पशु ज्यादा गरमी में खाना पसंद नहीं करता है, लिहाजा उस के खाने का इंतजाम इस तरह करना चाहिए कि वह अपना ज्यादा से ज्यादा खाना रात के ठंडे माहौल में खा सके.

* पशु एकदम सुबह या शाम के वक्त में भी राहत महसूस करते हैं, इसलिए इस दौरान भी चारे की मौजूदगी होनी चाहिए.

* भैंसों का तालाब या ठंडी जगह पर रहना काफी फायदेमंद रहता है.

बेल (Wood Apple) की खेती

आसानी से उगने वाला बेल (Wood Apple) औषधीय पेड़ होता है. बेल के पत्ते वात, शूल व आम बुखार को नष्ट करते हैं. इस के फूल वमन और अतिसार में फायदा पहुंचाते हैं. बेल मीठा और ठंडी तासीर वाला होता है. इस की जड़ की छाल और कच्चे फल का इस्तेमाल दस्त, पेचिश, पेटदर्द और पीलिया में फायदेमंद होता है. बेल के पत्तों का रस जुकाम, खांसी व दमे में फायदा पहुंचाता है.

किस्में : नरेंद्र बेल 1, नरेंद्र बेल 2, नरेंद्र बेल 5, मिर्जापुरी, कागजी, गोंडा, फैजाबाद वगैरह.

बोआई : नर्सरी में बीज फरवरीमार्च में बोए जाते हैं. जब बीजू पौधे पेंसिल के आकार के या इस से ज्यादा बड़े हो जाएं तो फरवरीमार्च या जुलाईअगस्त में पैच बडिंग की जाती है. इस के बाद बारिश के मौसम में तैयार पौधों को खेत में लगा दिया जाता है. पेड़ से पेड़ का फासला 10 मीटर रखा जाता है.

खाद व उर्वरक : 10 किलोग्राम गोबर की खाद (सड़ी), 100 ग्राम यूरिया, 150 ग्राम सुपर फास्फेट व 100 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश 1 साल के पौधे को दें. यह मात्रा इसी दर से 10 सालों तक बढ़ाते रहें. गोबर की खाद व अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा जून में और नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा अगस्त में दें.

सिंचाई : छोटे पेड़ों को 10 से 15 दिनों के अंतर पर नियमित रूप से सिंचाई की जरूरत होती है. बेल के बड़े पेड़ बिना सिंचाई के भी रह सकते हैं.

कटाईछंटाई: पेड़ का अच्छा ढांचा बनाने के लिए जमीन की सतह से 70 सेंटीमीटर ऊंचाई तक मुख्य तने पर कोई दूसरी शाखा नहीं रहने देनी चाहिए.

फूल व फल लगने का समय : बडिंग करने के करीब 5 साल बाद पौधों पर फल आने शुरू होते हैं. इस में मईजून के महीनों में फूल आते हैं और 10 महीने बाद फल पक कर तैयार हो जाते हैं.

पैदावार : अच्छी तरह देखभाल करने पर 10 से 12 साल की उम्र के पेड़ों से 300 से 400 फल प्रति पेड़ की दर से मिलते हैं.

खास कीड़े व बीमारियां

आल्टरनेरिया लीफ स्पाट : इस रोग में पत्तियों पर भूरे रंग के अनियमित आकार के धब्बे बनते हैं. रोगी पत्तियां झुलस कर गिर जाती हैं. यह रोग अल्टरनेरिया कवक के कारण होता है. रोकथाम के लिए कापरआक्सीक्लोराइड 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव 15 दिनों के अंतर पर करें.

अंतर्विगलन रोग : यह रोग संक्रमित फलों में लगता है. इस रोग में फलों का गूदा सड़ कर पूरी तरह नष्ट हो जाता है. ऐसी हालत में फल तोड़ते समय इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि उन में चोट न लगे.

फलों का फटना: कभीकभी सूक्ष्म तत्त्वों की कमी के कारण फल फट जाते हैं. नमी की कमी से भी फल फट जाते हैं. फलों के पकने से पहले ही उन में दरार पड़ जाती है. रोकथाम के लिए सिंचाई का पूरा खयाल रखें. पोषक तत्त्वों की कमी गोबर की खाद डाल कर दूर करें. इस के अलावा सूक्ष्म तत्त्वों का छिड़काव करें.

केंकर : इस बीमारी से प्रभावित भागों पर धब्बे बनते हैं, जो बाद में बढ़ कर भूरे हो जाते हैं. पत्तियों पर छेद हो जाते हैं. रोग से फल भी झड़ जाते हैं. रोकथाम के लिए स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 100 पीपीएम (यानी 1 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में) घोल का छिड़काव करें.

जयपुर जिले के सांगानेर तहसील के रूंडल गांव के प्रगतिशील किसान रामगोपाल यादव ने अपने खेत के चारों तरफ बेल के 25 से 30 पेड़ लगा रखे हैं.

इन पेड़ों से हर साल काफी अच्छी आमदनी होती है. किसान रामगोपाल यादव को 20 से 25 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से आमदनी होती है.

किसानों के शोषण (Exploitation of Farmers) के कारण

Exploitation of Farmers: चुनाव वाले समय में किसानों से कर्ज माफी जैसे तमाम वादे कर दिए जाते हैं. पर जब वादे निभाने का समय आता है, तब तमाम तरह की शर्तें लगा दी जाती हैं, जिन का फायदा जरूरतमंद किसानों तक नहीं पहुंच पाता और उन की उम्मीदों पर पानी फिर जाता है. किसानों का शोषण आढ़ती, व्यापारी से ले कर सरकार तक करती आई है.

किसानों को व्यापारी समयसमय पर मदद करते रहते हैं, पर उस के बदले 3 फीसदी की दर से ब्याज भी वसूलते हैं. फसल आने पर व्यापारी अपना पैसा ब्याज सहित काट लेते हैं. किसान पहले ही व्यापारी का कर्जदार होता है, इसलिए वह दूसरे बाजार या आढ़ती को माल नहीं बेच पाता, जिस का लाभ व्यापारी उठाते हैं.

किसानों के बीच यह भी सोच है कि उन के पुरखे भी व्यापारियों से लेनदेन करते आए थे, लिहाजा वे भी उन्हीं के जाल में फंसे रहते हैं.

इस के अलावा दुकानदार खाद, बीज व कीटनाशक आदि सामान भी बेचते हैं. कुछ दुकानदार तय कीमत से भी कम पर किसानों को सामान बेचते हैं, लेकिन उस के साथ दूसरा सामान ऐसा देते हैं, जिस से वे 40 फीसदी तक मुनाफा कमाते हैं. यहां भी किसान का शोषण होता है, जिस का उन को पता ही नहीं चल पाता है.

exploitation of farmers

लुभावना पैकेज

हर प्रदेश में जगहजगह कृषि गोदाम, कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि रक्षा इकाई जैसे केंद्र हैं, जहां से किसानों को बीज व कीटनाशक मिलते हैं और सलाह भी मिलती है. ये केंद्र किसानों को उपकरणों, बीजों व दवा पर छूट के बारे में भी जानकारी देते हैं. यही काम अगर सरकारी कर्मचारी करें, तो किसान ज्यादा फायदे में रहेगा. छूट वाले बीज महज 3-5 फीसदी किसान ही ले पाते हैं. सब्सिडी वाले बीज कुछ लोगों द्वारा पहले ही खरीद लिए जाते हैं, जिन्हें बाद में किसानों को मनचाहे दामों पर बेचा जाता है.

तहसील स्तर पर कर्मचारी

सरकारी तबका भी किसानों का शोषण करने में पीछे नहीं है. किसान का सब से नजदीकी संबंध लेखपाल के साथ होता है. लेखपाल किसान के घर आता है, तो किसान उसे दूध, घी, फलसब्जियां और दालें आदि देते हैं, लेकिन अगर किसान खसरा या कोई और जरूरी कागज लेने लेखपाल के पास जाए, तो वह कम से कम 50 रुपए जरूर लेगा. कृषि से संबंधित कोई भी काम कराना हो, तो बिना घूस दिए किसानों का काम नहीं होता. कोई डाक्यूमेंट बनवाना हो तब भी पैसे लगते हैं. अगर कोई राहत का चैक बनना है, तो तहसीलदार या डीएम का बहाना बना कर लेखपाल 10 फीसदी तक रकम नकद लेता है.

कृषि क्षेत्र से जुड़े नेता

आज किसानों की बातें एसी में बैठे नेता या कृषि अधिकारी अकसर करते हैं. वे किसानों को समयसमय पर बरगलाते हैं, जिस से किसान समय से केसीसी, लगान व सिंचाई का पैसा नहीं देते, नतीजतन उन का ब्याज बढ़ जाता है. मजबूरन किसान कर्ज चुकाने के लिए तरहतरह के तरीके इस्तेमाल करते हैं. कई दफा वे फर्जी दस्तावेज भी बनवा लेते हैं, जिस से भविष्य में अकसर उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है.

Unseasonal Rain : अप्रैल माह में बेमौसम बरसात से फसल सुरक्षा

Unseasonal Rain : अप्रैल में बेमौसम बारिश से गेहूं, प्याज एवं अन्य सब्जियों जैसी फसलों को भारी नुकसान होगा, इस से किसानों की आय प्रभावित होगी और कीमतें बढ़ेगी.

प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी भाटपाररानी देवरिया के निदेशक प्रो. रवि प्रकाश मौर्य सेवानिवृत वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक ने बताया, कि बेमौसम बारिश (Unseasonal Rain) से उन किसानों को नुकसान होगा जिन्होंने अभी तक गेहूं की फसल की कटाईमड़ाई नहीं की है.

मौसम ठीक होने पर फसल सुखने के बाद तुरंत गेहूं की कटाईमड़ाई कर अनाज को सुखा कर भंडारण करें.

प्याज की फसल में नमी बढ़ने से पत्ते सड़ जाते हैं और प्याज जमीन में सड़ने लगती है. प्याज का रंग और क्वालिटी खराब हो सकती है. इस के साथ ही, लहसुन जो खुदाई की स्थिति में है, उसे भी नुकसान होगा.

बेमौसम बारिश (Unseasonal Rain) से पोस्टहार्वेस्ट गतिविधियों पर असर पड़ सकता है, जिस से जल्द खराब होने वाली फलों व सब्जियों की कीमतों में बढ़ोतरी हो सकती है. अब और बारिश होती है, तो मिट्टी में नमी बनी रहने से फसल में फंगस, बैक्टीरिया और कीट आदि सहित पीला मोजेक रोग का खतरा बढ़ जाएगा. ऐसे में फसल पीली हो कर सड़ जाएगी.

मक्का की फसलों को हवा चलने के कारण गिरने से नुकसान हाेने की संभावना है. कद्दू वर्गीय सब्जियों में फल सड़ने की आशंका बनेगी. आम के टिकोरे(फल) तेज हवा चलने से गिरेगें. इस के साथ ही दलहनी फसलों में उड़द व मूंग की फसल प्रभावित हो सकती है.

जो किसान खेत से फसल काट कर खलिहान में रखे हैं, वे प्रभावित होगी. मौसम साफ होने पर खलिहान में रखी फसल को फैला कर सुखाएं. किसानों को सलाह दी जाती है, कि जल निकास की व्यवस्था सुनिश्चित करें जिस से फसलों को बचाया जा सके.

जो खेत खाली है उन की मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करें, जिस से तेज धूप होने से हानिकारक कीट,खरपतवार फंगस आदि नष्ट हो जाएंगे और मृदा की गुणवत्ता बनी रहेगी.

इस के साथ ही, आकाशवाणी, दूरदर्शन से मौसम समाचार समयसमय पर सुनते रहें. मोबाइल पर मौसम ऐप डाउनलोड कर ताजा मौसम की जानकारी ले सकते हैं.

बांझ होते मवेशी (Cattle) और परेशान पशुपालक

Cattle: बिहार के 20 लाख से ज्यादा मवेशियों पर बांझपन का खतरा मंडराने लगा है. औक्सीटोसिन इंजेक्शन की वजह से मवेशियों में यह बीमारी पनप रही है. राज्य में दुधारू मवेशियों की संख्या 40 लाख के करीब है. केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने इस खतरे के बारे में राज्य के मुख्य सचिव को पत्र भेज कर आगाह किया है. गौरतलब है कि मवेशियों में दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए औक्सीटोसिन इंजेक्शन लगाने पर केंद्र सरकार ने रोक लगा रखी है. इस इंजेक्शन को मवेशी को तभी लगाया जा सकता है, जब वह एग्लैक्सिया बीमारी से पीडि़त हो.

वेटनरी डाक्टर सुरेंद्र नाथ कहते हैं कि इस इंजेक्शन की वजह से गायों और भैंसों में बांझपन का खतरा काफी हद तक बढ़ गया है. आमतौर पर गायभैंसों की औसत प्रजनन कूवत 8 से 10 बच्चे पैदा करने की होती है. औक्सीटोसिन इंजेक्शन की वजह से औसत प्रजनन कूवत घट कर 2-3 बच्चे की ही रह गई है. मवेशीपालक दूध का उत्पादन बढ़ाने के लालच में खुलेआम इस इंजेक्शन का इस्तेमाल कर के कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं और मवेशियों की जान को भी खतरे में डाल रहे हैं.

बिहार के पशुपालन विभाग के आकलन के मुताबिक राज्य में भैंस प्रजाति के 80 लाख जानवर हैं, जिन में से 16 लाख दुधारू हैं. इसी तरह गाय प्रजाति के 1 करोड़ जानवर हैं, जिन में से 50 लाख गायें हैं. इन में से 24 लाख दुधारू हैं.

औक्सीटोसिन स्तनपायी संबंधी हार्मोन है, जो साल 1953 में बाजार में आया था. इस इंजेक्शन को स्तनपान तेज कराने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. यह दवा दूध को बढ़ाती है, लेकिन ज्यादा इस्तेमाल से प्रजनन कूवत धीरेधीरे खत्म होने लगती है.

ज्यादा दूध निकालने के लालच में डेरी संचालक औक्सीटोसिन इंजेक्शन का जम कर इस्तेमाल करते हैं. इस से तात्कालिक फायदा तो हो जाता है, पर मवेशियों की प्रजनन कूवत धीरेधीरे खत्म हो जाती है. कानून कहता है कि इस दवा को डाक्टर की पर्ची के बगैर न बेचें, नहीं तो दवा की दुकान का लाइसेंस रद्द हो सकता है और 5 साल की कैद की सजा भी मिल सकती है. इस कानून के बाद भी हालत यह है कि भूसा, चोकर, खली आदि की दुकानों पर खुल्लमखुल्ला औक्सीटोसिन इंजेक्शन बिक रहा है.

दुधारू मवेशियों में तेजी से बढ़ती बांझपन की समस्या डेरी उद्योग को खासा नुकसान पहुंचा रही है. करीब 30 फीसदी मवेशी बांझपन और प्रजनन संबंधी बीमारियों की चपेट में हैं. भोजन में हरे चारे का नहीं मिलना, शरीर में लवण की कमी होना, हार्मोन का संतुलन बिगड़ना और औक्सीटोसिन का ज्यादा इस्तेमाल किया जाना पशुओं में बांझपन की खास वजहें हैं.

वेटनरी डाक्टर कौशल किशोर बताते हैं कि कुपोषण, संक्रमण, जन्मजात विकार, अंडाणु या हार्मोन में असंतुलन दुधारू मवेशियों में बांझपन की अन्य वजहें हैं. गायों और भैंसों में यौन उत्तेजना 18-21 दिनों में एक बार 18 से 24 घंटे के लिए होती है.

यौन उत्तेजना होने पर गायें खूब रंभाती हैं, बेचैनी में इधरउधर घूमने लगती हैं और खूंटा उखाड़ कर भागने की कोशिश करती हैं. गायों के उलट भैंसें इस दौरान खामोश ही रहती हैं. इस से पशुपालकों को उन की यौन उत्तेजना के बारे में पता नहीं चलता है.

Cattle

इस के लिए पशुपालकों को हमेशा पशुओं की निगरानी करनी चाहिए. उत्तेजना का गलत अनुमान बांझपन के अनुपात को बढ़ा सकता है.

बांझपन से अपने पशुओं को बचाने के लिए पशुपालकों को चाहिए कि पशुओं की यौन उत्तेजना के दौरान ब्रीडिंग जरूर कराएं. अगर किसी पशु में उत्तेजना नहीं आती हो, तो तुरंत डाक्टर की सलाह लेनी चाहिए.

इस के साथ ही हर 6 महीने पर पशुओं के पेट के कीड़ों की जांच जरूर करानी चाहिए. पशुओं के वजन के बढ़ने और घटने पर भी ध्यान रखना जरूरी है. पशु का वजन 230 से 250 किलोग्राम के बीच हो तो बेहतर गर्भाधान होता है.

बांझपन से ऐसे बचाएं दुधारू पशुओं को

*             पशुओं का दूध बढ़ाने के लिए औक्सीटोसिन इंजेक्शन का इस्तेमाल न करें.

*             पशुओं को हरा चारा खूब खिलाएं.

*             रोगों से मुक्त रखने के लिए समयसमय पर वेटनरी डाक्टर से सलाह लेते रहें.

*             पशुओं में होने वाली यौन उत्तेजना के प्रति जागरूक रहें.

*             अंडाणु या हार्मोन के असंतुलन की जांच कराते रहें और इलाज में लापरवाही न बरतें.

52 दिनों में तैयार होने वाली मूंग (Moong)

Moong: भारत में दालों की पैदावार कम और खपत ज्यादा होने से इन की कीमतों में उछाल आ रहा है. केंद्र सरकार ने दलहनी फसलों के रकबे को बढ़ाने का सुझाव दिया है.

इस के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने मूंग की एक ऐसी किस्म तैयार की है, जो पीला मोजेक वायरस अटैक से प्रभावित नहीं होगी. यह किस्म 52 दिनों में पक कर तैयार होगी.

भारतीय दाल अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों ने 20 सालों की खोज के बाद इस ‘विराट’ नामक मूंग की नई प्रजाति को तैयार करने में कामयाबी हासिल की है.

खास बात यह है कि मूंग की नई प्रजाति से किसानों को 45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी मिलेगा.

कृषि मंत्रालय के पल्स डायरेक्टर डा. बीबी सिंह के मुताबिक मूंग की नई प्रजाति विराट कम पानी में पक कर तैयार होगी. साथ ही फसल कटाई के बाद हरी खाद तैयार कर जमीन की उर्वरा शक्ति में बढ़ोतरी की जा सकती है. मूंग की यह फसल पीला मोजेक के साथसाथ चूर्णित आसिता बीमारी के प्रति भी सहनशील होगी.

जमीन का चुनाव और तैयारी : मूंग की खेती सभी तरह की जमीन में की जा सकती है. मध्यम दोमट, मटियार जमीन, समुचित पानी के निकास वाली, जिस का पीएच मान 6-7 हो, इस के लिए अच्छी होती है.

जमीन में सही मात्रा में स्फुर का होना लाभदायक होता है. 2 या 3 बार हल या बखर चला कर मिट्टी को पाटा लगा कर समतल करें. दीमक के असर वाले खेत में फसल की सुरक्षा के लिए एल्ड्रिन 4 फीसदी चूर्ण की 7 किलोग्राम मात्रा प्रति एकड़ के हिसाब से अंतिम बखरनी के पहले डालें और बखर से मिट्टी में मिलाएं.

बीज की मात्रा व बीजोपचार : खरीफ मौसम में मूंग के बीज की 5 से 7 किलोग्राम मात्रा प्रति एकड़ की दर से लगती है. कार्बेंडाजिम, थायरम या थायरम फफूंदनाशक दवा से बीज उपचारित करने से बीजों और जमीन में पैदा होने वाली बीमारियों से फसल की सुरक्षा होती है.

इस के बाद बीजों को जवाहर रायजोबियम कल्चर से उपचारित करें. 4 ग्राम रायजोबियम कल्चर प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से ले कर बीजों को उपचारित करें और छाया में सुखा कर जल्दी ही बोआई करें. इस उपचार से रायजोबियम की गांठें ज्यादा बनती हैं, जिस से नाइट्रोजन स्थरीकरण में बढ़ोतरी होती है और जमीन की उर्वरा शक्ति बनी रहती है.

बोने का समय : खरीफ में जून के आखिरी हफ्ते से जुलाई के दूसरे हफ्ते तक सही बरसात होने पर बोआई करें. जायद में फरवरी के दूसरे या तीसरे हफ्ते से मार्च के दूसरे हफ्ते तक बोआई करनी चाहिए.

खाद व उर्वरक : मूंग के लिए 7 किलोग्राम नाइट्रोजन, 1 किलोग्राम स्फुर 7 किलोग्राम पोटाश और 7 किलोग्राम गंधक प्रति एकड़ बोने के समय इस्तेमाल करना चाहिए.

सिंचाई और जल निकास : अकसर खरीफ के सीजन में सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. पर फूल अवस्था आने पर सूखे की स्थिति में सिंचाई करने से उपज में काफी बढ़ोतरी होती है. ज्यादा बारिश की स्थिति में खेत से पानी का निकलना जरूरी है. जायद मूंग फसल में खरीफ की तुलना में पानी की ज्यादा जरूरत होती है.

निराई व बोआई : पहली निराई बोआई के 1 से 14 दिनों के अंदर व दूसरी 3 से 34 दिनों में करनी चाहिए. 1-2 बार कोल्पा चला कर खेत को नींदारहित रखा जा सकता है. खरपतवार नियंत्रण के लिए नींदा नाशक दवाओं जैसे बासालीन या पेंडामेथलीन का इस्तेमाल भी किया जा सकता है.

पौध संरक्षण

कीट : फसल की शुरुआती अवस्था में तनामक्खी, फलीबीटल, हरी इल्ली, सफेद मक्खी, माहू, जैसिड, थ्रिप्स वगैरह का हमला होता है. इन की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 24 ईसी की 3 से 4 मिलीलीटर व क्वीनालफास 14 ईसी की 5 मिलीलीटर मात्रा प्रति एकड़ या मिथाइल डिमेटान 14 ईसी की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति एकड़ के हिसाब से इस्तेमाल करें. जरूरत पड़ने पर 4 दिनों बाद दोबारा छिड़काव करें.

पुष्पावस्था में फली छेदक और नीली तितली का हमला होता है. क्वलीनालफास 14 ईसी की 5 मिलीलीटर या मिथाइल डिमेटान 14 ईसी की 1 मिलीलीटर मात्रा का प्रति एकड़ के हिसाब से 4 दिनों के अंतर पर छिड़काव करने से इन की रोकथाम हो सकती है. कई इलाकों में कंबल कीड़े का भारी हमला होता है. इस की रोकथाम के लिए पेराथियान चूर्ण 1 फीसदी का बुरकाव करें.

रोग

मेक्रोफोमिना रोग : कत्थई भूरे रंग के धब्बे पत्तियों के निचले भाग पर मेंकोफोमिना और सरकोस्पोरा फफूंद के द्वारा बनते हैं. इन की रोकथाम के लिए 4 फीसदी कार्बेंडाजिम या फायटोलान या डायथेन जेड पानी में घोल कर इस्तेमाल करें.

भभूतिया रोग या बुकनी रोग : 2-3 दिनों की फसल में पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है. इस की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक या कार्बेडाजिम 4 दिनों के अंतराल पर 3 बार छिड़काव करें.

पीला मोजेक वायरस रोग : यह सफेद मक्खी द्वारा फैलने वाला विषाणुजनित रोग है. इस रोग के असर की वजह से पत्तियां और फलियां पीली पड़ जाती हैं और उपज पर प्रतिकूल असर होता है. सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफास 25 ईसी की 2 मिलीलीटर मात्रा का प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें. इस रोग से प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें. पीला मोजेक वायरस निरोधक किस्मों को उगाना ही सब से अच्छा उपाय है.

Apple: किन्नौर के बागबान ने उगाया जमीन के नीचे सेब

उम्दा सेब (Apple) की बात की जाए तो देश और विदेश में शिमला और किन्नौर के नाम सब से आगे रहते हैं. किन्नौर का सेब देशविदेश में सब से ज्यादा पसंद किया जाता है. किन्नौर में कड़ाके की ठंड में पैदा होने वाले सेब (Apple) की सब से ज्यादा मांग रहती है. किन्नौर के बागबानों की खास फसल सेब (Apple) ही है और यह उन की साल भर की मेहनत रहती है. साल भर का खर्चा भी सेब (Apple) की फसल बेचने से ही उठाया जाता है. किन्नौर की अर्थव्यवस्था सेब पर काफी हद तक टिकी हुई है.

अभी तक तो पेड़ों से ही सेब की पैदावार हासिल की जाती रही है, पर अब किन्नौर के बागबान ग्राउंड एप्पल की पैदावार भी करने लगे हैं. यहां के बागबान अब ग्राउंड एप्पल को फसल के रूप में उगाने को आगे आए हैं. किन्नौर के सेब का जिक्र आते ही किसी के भी मुंह में पानी आना लाजिम है. अब किन्नौर के बागबान जमीन के नीचे यानी भूमिगत सेब पैदा कर के देश की मंडियों में तहलका मचाने वाले हैं.

किन्नौर के जागरूक बागबान सत्यजीत ने ग्राउंड एप्पल उगा कर जिले के बागबानों के लिए आय का एक नया जरीया ढूंढ़ निकाला है. सत्यजीत नेपाल से लाए गए इस बीज का किन्नौर में सफल प्रयोग कर चुके हैं व अब इस की कमर्शियल खेती करने लगे हैं. जिले के अन्य जागरूक किसान भी उन से ग्राउंड एप्पल का बीज ले जा कर खेतों में उगाने लगे हैं. अमेरिका से नेपाल होते हुए ग्रांउड एप्पल किन्नौर पहुंचा है.

इस सेब की फसल का लोग किस रूप में और कितना दोहन कर पाते हैं, यह भविष्य बताएगा, पर इतना जरूर है कि बागबान अपने खेतों में ग्राउंड एप्पल की खेती करने को आगे जरूर आए हैं.

पेशे से एडवोकेट सत्यजीत नेगी लंबे समय से बागबानी से भी जुड़े हैं और बागबानी क्षेत्र में तरहतरह से प्रयोग कर चुके हैं. ग्राउंड एप्पल को किन्नौर के बागबानों के बीच सब से पहले लाने का काम भी उन्होंने ही किया है. एक नेपाली से उन्होंने ग्राउंड एप्पल का बीज हासिल किया और इस की खेती करने में सफलता हासिल की.

सत्यजीत नेगी ने सब से पहले इस का परीक्षण मार्च, 2014 में किन्नौर जिला मुख्यालय रिकांगपिओ पेवारी और पूवर्नी गांव में अपने खेतों में किया. 7 महीने बाद इस के अच्छे नतीजे सामने आए. इस से प्रोत्साहित हो कर सत्यजीत ने पिछले साल करीब 10 किलोग्राम बीज तैयार करने के साथ 1 क्विंटल ग्राउंड एप्पल भी तैयार किए हैं.

किन्नौर के बागबानों के लिए ग्राउंड एप्पल नई उम्मीद की किरण ले कर आया है और यह नकदी फसल के रूप में पैदा किया जा सकता है. ग्राउंड एप्पल की फसल उगाने का सब से बड़ा फायदा यही है कि इसे पक्षी और बंदरों से ज्यादा नुकसान नहीं होगा. इसे जमीन के नीचे आलू की तरह लगाने से पक्षियों से नुकसान का खतरा नहीं रहता है और यह जानवरों की नजरों से भी बचा रहता है.

सत्यजीत नेगी ने ग्राउंड एप्पल का बीज प्रदेश की बागबान मंत्री विद्या स्टोक्स को भेट किया है, ताकि देश के अन्य क्षेत्रों में ग्राउंड एप्पल की पैदावार की संभावनाओं को तलाशा जा सके. इस में कोई शक नहीं है कि ग्राउंड एप्पल की पैदावार बढ़ने से प्रदेश के अन्य इलाकों के बागबानों को भी ग्राउंड एप्पल की पैदावार के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. जमीन के नीचे होने की वजह से ग्राउंड एप्पल पर ओलावृष्टि की ज्यादा मार नहीं पड़ेगी. इस के अलावा फसल को मौसम की मार भी ज्यादा नहीं पड़ेगी.

ग्राउंड एप्पल से कई प्रोडक्ट होते हैं तैयार : ग्राउंड एप्पल को वैसे कच्चा खाया जा सकता है, क्योंकि इस का स्वाद अन्य सेबों की तरह मीठा ही है. इस के अलावा ग्राउंड एप्पल से जूस, जैम, जैली व चटनी आदि बनाए जा सकते हैं. ग्राउंड एप्पल को बाजार में नकदी फसल के रूप में भी बेच सकते हैं. इस के बीजों को भी बागबानों को बेचा जा सकता है.

गड़हनी साग (Garhani Saag)

घास प्रजाति का गड़हनी साग (Garhani Saag) गरीब आदिवासियों की थाली में सब से स्वादिष्ठ सागभाजी है. वे इसे बाजार से नहीं, बल्कि मुफ्त में नदीनालों के किनारों से लाते हैं और सागभाजी बना कर चावल या रोटी के साथ मजे से खाते हैं.

यह उन का सब से प्रिय सागभाजी है. अब तो इस सागभाजी को आदिवासियों की देखादेखी और भी लोग खाने लगे हैं.

घास पतवार के रूप में गड़हनी साग झारखंड के पूर्वी और पश्चिमी सिंहभूमि के नमी वाले स्थानों पर पाया जाता है. यह साग खेतों में नहीं उपजाया जाता, बल्कि यह अन्य सब्जीभाजी लगे खेतों में अपनेआप उग आता है. इस की पैदावार के स्थान उथली नदी, नालों के किनारे, सब्जीभाजी लगे खेत, कुएं व तालाब के किनारे वगैरह हैं. यह साग मुख्य रूप से पानी वाले स्थानों पर होता है.

गड़हनी साग के डंठल में दाएंबाएं चारों तरफ से पत्तियां निकली होती हैं. इस में फूल नहीं होता. इस की लंबाई 7 से 8 इंच के करीब होती है. इस का डंठल बाल पेन के रीफिल से थोड़ा ही मोटा होता है और पत्तियां 1 इंच से बड़ी नहीं होतीं. डंठल हलके हरे रंग का होता है, जबकि इस की पत्तियां गहरे हरे रंग की होती हैं. इस की जड़ मिट्टी और पानी दोनों में होती है, लेकिन पानी इस के लिए जरूरी है. इस की जड़ मिट्टी के बगैर भी बढ़ती है, लेकिन पानी के बिना यह तुरंत मुरझा जाता है.

आम शहरी लोग गड़हनी साग से अनजान होने के कारण अपने खानपान में इसे शामिल नहीं करते, इसलिए यह बाजारों में नहीं बिकता है. सच तो यह है कि इस के बारे में आदिवासियों के अलावा कोई जानता ही नहीं है.

यह साग खाने में काफी स्वादिष्ठ होता है. जैसे चौलाई का साग बनाया जाता है, उसी तरह से इसे भी बनाया जाता है. पहले इसे नाखूनों से तोड़ा जाता है, फिर धो कर काट लिया जाता है. काटने के बाद सरसों का तेल कड़ाही में गरम कर के मेथी की छौंक लगाई जाती है, फिर गड़हनी साग को कड़ाही में डाल कर फ्राई किया जाता है. फ्राई करते समय यह साग पानी छोड़ता है, जिसे कड़ाही में ही सुखा दिया जाता है. पकने के बाद इसे कड़ाही से निकाल कर एक कटोरे में ले कर इस में थोड़ा कच्चा तेल, नमक और कटी हरी मिर्च मिलाते हैं.

इस प्रकार यह खाने के लिए तैयार हो जाता है. इस का स्वाद चने के साग जैसा ही लगता है, लेकिन थोड़ा अलग सा लगता है. इसे भात यानी चावल के साथ सान कर खाया जा सकता है. कुछ लोग इसे दालभात के साथ भी खाते हैं. रोटी के साथ खाने में यह और भी स्वादिष्ठ लगता है.

गड़हनी साग सेहत के लिहाज से भी काफी लाभदायक होता है. इसे खाने से आंखों की रोशनी बरकरार रहती है, खून का संचार सही रहता है, पेट ठंडा रहता है, कब्ज नहीं होता, सिर के बाल नहीं झड़ते हैं और न ही जल्दी सफेद होते हैं. यह सच है कि इसे खाने वाले आदिवासी लोगों की आंखों पर चश्मा नहीं चढ़ता और न ही वे गंजे होते हैं.

ठंड के मौसम में नमी ज्यादा रहने के कारण गड़हनी साग जगहजगह उग आता है. वैसे तो यह गरमी के मौसम में भी होता है, लेकिन कम होता है. चौलाई व सरसों जैसे मशहूर सागों की तरह इस में भी ठंड के मौसम में पानी की मात्रा ज्यादा होती है, जबकि गरमी के दिनों में इस में पानी की मात्रा कम हो जाती है. आदिवासी लोग इसे जाड़े के दिनों में ज्यादा खाना पसंद करते हैं, क्योंकि इस मौसम में इस का स्वाद बढ़ जाता है.

ऐसा भी नहीं है कि इसे केवल आदिवासी ही खाते हैं. यह साग इसे जानने वाले आम मध्यमवर्ग के घरों में भी हफ्ते में एकाध बार पकता ही है. शहरी माहौल में रहने वाले लोगों को इसे स्थानीय बाजारों में खोजते देखा गया है. ऐसे लोग गांवदेहातों से आने वाले सब्जी विक्रेताओं को आर्डर दे कर इसे मंगवाते हैं.

यह एक ऐसा घास प्रजाति का साग है, जिस की खेती नहीं होती. अगर इसे व्यावसायिक रूप से बेचने के लिए उपजाया जाए तो इस पर कोई लागत नहीं आएगी और मुनाफा भी काफी हो सकता है.

Citrus Fruits : नीबू प्रजाति के फलों की खेती

Citrus Fruits : भारत में उगाए जाने वाले तमाम फलों में नीबू प्रजाति के फलों की खास जगह है. इन में विटामिन ए, बी, सी व खनिज काफी मात्रा में पाए जाते हैं. नीबू वर्गीय फलों में मौसमी, माल्टा, संतरा व नीबू वगैरह खास हैं.

जलवायु व जमीन : नीबू प्रजाति के फल तमाम तरह की जलवायु में उगाए जाते हैं. मौसमी व माल्टा के उत्पादन के लिए गरमी के मौसम में अच्छी गरमी व सर्दी के मौसम में अच्छी सर्दी सही रहती है. इन के लिए शुष्क जलवायु जहां पर बारिश 50-60 सेंटीमीटर होती है, सही रहती है. संतरा व नीबू के लिए गरम, पाला रहित व नम जलवायु जहां बारिश 100-150 सेंटीमीटर होती है, सही रहती है. नीबू हर जगह उगाया जा सकता है.

नीबू प्रजाति के फलों की खेती कई प्रकार की जमीन में की जा सकती है, लेकिन ज्यादा उपजाऊ दोमट जमीन जो 2 से सवा 2 मीटर गहरी हो, इन की खेती के लिए ज्यादा अच्छी है. संतरा, मौसमी और माल्टा के लिए बलुई मिट्टी जिस में जल धारण की कूवत नहीं होती है, मुनासिब नहीं होती. जल निकास युक्त चिकनी मिट्टी जिस में जल धारण की कूवत नहीं होती है, इस की खेती के लिए अच्छी रहती है. इन फलों की खेती के लिए जमीन का चुनाव करते समय इस बात का खयाल रखना चाहिए कि जमीन लवणीय या क्षारीय न हो.

पौध लगाना : नीबू प्रजाति के पौधों को बीज व वानस्पतिक दोनों ही तरीकों द्वारा तैयार किया जाता है. बीज द्वारा पौधे तैयार करने के लिए जुलाई, अगस्त या फरवरी में बीज बोते हैं. नीबू में गूटी लगाने का सही समय जुलाई है. मौसमी व माल्टा के पौधों को कलिकायन से तैयार किया जाता है. इस के लिए पहले बीज से मूलवृंत तैयार करते हैं. बीज हमेशा रफलेमन (जमबेरी व जट्टी खट्टी) के स्वस्थ व पके फलों से लेने चाहिए. बीजों को फलों से निकालने के बाद उन्हें तुरंत क्यारियों में बो देना चाहिए. बीज बोने के लिए फरवरी का समय सही रहता है. जब मूलवृंत 1 साल का हो जाए तब उन पर ही कलिकायन (बडिंग) करें. नीबू प्रजाति के पौधे बीज से भी तैयार किए जा सकते हैं. बीजों को फलों से निकालने के बाद तुरंत नर्सरी में बो देना चाहिए. नर्सरी में पौधे 1 साल के होने के बाद ही खेत में रोपाई करनी चाहिए.

उन्नत किस्में : नीबू प्रजाति के तमाम वर्गों में इस्तेमाल में लाई जाने वाली प्रमुख प्रजातियों का विवरण निम्नलिखित है:

माल्टा वर्ग

जाफा : फल का आकार गोल होता है. इस की लंबाई 6.37 सेंटीमीटर और चौड़ाई 6.51 सेंटीमीटर होती है. यह पकने पर लालनारंगी रंग का हो जाता है. फल का औसत वजन 140 से 190 ग्राम होता है. इस में रस की मात्रा 30 से 35 फीसदी होतीहै. फल में बीजों की संख्या 5 से 10 तक तक होती है. इस के छिलके  की मोटाई 0.40 सेंटीमीटर होती है. फल नवंबरदिसंबर में पकते हैं. फल उत्पादन 125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है.

मौसमी : इस के फल छोटे से मध्यम आकार के होते हैं, जिन की लंबाई 6.07 सेंटीमीटर और चौड़ाई 6.25 सेंटीमीटर होती है. फल के ऊपर लंबाई में धारियां और तले पर गोल छल्ला होता है. फल पकने पर गहरे पीले रंग के हो जाते हैं, जिन में रस की मात्रा 30 से 35 फीसदी होती है. इस के छिलके की मोटाई 0.35 सेंटीमीटर होती है. फल में खटास 0.25 फीसदी और मिठास 10 से 12 फीसदी होती है. मौसमी नवंबरदिसंबर में पकती है. फलों की उपज 85 से 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

संतरा वर्ग

किन्नू: इस के फल गोल, मध्यम व चपटापन लिए हुए नारंगी रंग के होते हैं. फल का वजन 125 से 175 ग्राम तक होता है. पकने पर छिलका पतला व चमकदार होता है. इस का गूदा नारंगीपीला होता है और रस की मात्रा 40 से 45 फीसदी होती है. फल जनवरी में पकते हैं. पौधा लगाने के 5 सालों बाद 125 से 150 किलोग्राम प्रति पौधा उपज हासिल होती है.

नागपुर संतरा : यह राजस्थान के झालावाड़ क्षेत्र की मुख्य किस्म है, जो हरे रंग की हलके वजन वाली होती है. यह भरपूर रस वाली किस्म है, जो जनवरीफरवरी में पक कर तैयार हो जाती है.

नीबू वर्ग

कागजी नीबू : इस के फल मध्यम गोल आकार के होते हैं. इस का छिलका पतला होता है. रस की मात्रा 45 फीसदी होती है. इस में घुलनशील लवण 7 फीसदी और अम्लता 3 से 5 फीसदी होती है. फल पकने का समय जुलाईअगस्त और मार्च होता है. पैदावार 40 से 50 किलोग्राम प्रति पौधा होती है.

पंत लेमन : यह पंतनगर से कागजी फलों की चुनी हुई किस्म है, जिस का छिलका पतला होता है.

पौधे लगाने की विधि : नीबू वर्गीय पौधे 5×5 मीटर की दूरी पर लगाएं और 6 से 8 मीटर की दूरी पर मौसमी, संतरा वगैरह के लिए 90×90×90 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे 2 महीने पहले यानी मईजून के दौरान खोद लेने चाहिए. गड्ढों में 25 किलोग्राम गोबर की खाद, 1 किलोग्राम सुपरफास्फेट व 50 से 100 ग्राम क्यूनालफास 1.5 फीसदी या एंडोसल्फान 4 फीसदी चूर्ण मिट्टी में मिला कर भर देना चाहिए. पौधे लगाने का सब से सही समय जुलाईअगस्त रहता है. जहां पानी की अच्छी सुविधा हो, वहां फरवरी में भी पौधे लगाए जा सकते हैं.

खाद व उर्वरक : गोबर की खाद,सुपर फास्फेट व म्यूरेट आफ पोटाश की पूरी मात्रा व यूरिया की आधी मात्रा दिसंबरजनवरी में डालें और बाकी आधी यूरिया जूनजुलाई में डालें.

सूक्ष्म तत्त्व : नीबू वर्गीय फलों में सूक्ष्म तत्त्वों की कमी से पेड़ों में तमाम विकार पैदा हो जाते हैं. सूक्ष्म तत्त्वों में जिंक, बोरोन, मैगनीज, तांबा व लोहा खास हैं. जिंक की कमी से पत्तियां छोटी रह जाती हैं और उन की नसों के बीच का रंग हलका पड़ जाता है. जिंक की कमी से फल गिरने लगते हैं. मैगनीज की कमी के कारण पत्तियों का रंग धीरेधीरे हलका हो जाता है. ये लक्षण विकसित पत्तियों पर साफ दिखाई देते हैं.

पौधों में इन तत्त्वों की कमी के असर को रोकने के लिए इन तत्त्वों का छिड़काव फरवरी व जुलाई में करना चाहिए. इन तत्त्वों को अलगअलग घोलने के बाद पानी में मिलाना चाहिए. छिड़काव के लिए जिंक सल्फेट 500 ग्राम, कापर सल्फेट 300 ग्राम, मैगनीज 200 ग्राम, मैग्नीशियम सल्फेट 200 ग्राम, बोरिक एसिड 100 ग्राम, फेरस सल्फेट 200 ग्राम व बुझा हुआ चूना 900 ग्राम ले कर 100 लीटर पानी में मिलाना चाहिए.

सिंचाई : फल तोड़ने के बाद 1 महीने तक पानी देना बंद कर दें. फिर फूल खिलने से पहले सिंचाई शुरू कर देनी चाहिए. फूल खिलने के समय सिंचाई न करें. जब फल मूंग के दाने के बराबर हो जाएं तो नियमित सिंचाई करें. गरमी के मौसम में करीब 10 से 15 दिनों के अंतर पर और सर्दी के मौसम में 25-30 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. फल विकास के समय सही मात्रा में नमी होना जरूरी है, वरना फल फटने लगते हैं.

देखभाल : फल देने वाले पौधों की कम से कम कटाईछंटाई करनी चाहिए. फलों को तोड़ने के बाद ऐसी शाखाएं जो जमीन के ज्यादा संपर्क में आ जाती हैं, उन को काट देना चाहिए. सभी रोगी व घनी शाखाओं को भी काट देना चाहिए. सही आकार देने के लिए रोपाई के 3 सालों तक कटाईछंटाई करते रहना चाहिए. बाग लगाने के शुरू के 3 सालों में बाग में दलहनी फसलों की खेती की जा सकती है. इस से शुरू के सालों में भी आमदनी हासिल होती रहेगी.

कीड़ों की रोकथाम

नीबू की तितली : इस की लटें शुरू में चिडि़यों के बीट की तरह दिखाई देती हैं. अंडों से निकलने के तुरंत बाद ये पत्तियों को खाने लगती हैं और नुकसान पहुंचाती हैं.

* रोकथाम के लिए पेड़ों की संख्या ज्यादा न हो, तो लटों को पेड़ों से चुन कर मिट्टी के तेल मिले पानी में डाल कर मार देना चाहिए.

* मोनोक्रोटोफास की 1.5 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें.

फल चूसक पतंगा: यह कीट फलों में छेद कर के रस चूसता है, जिस से संक्रमित भाग पीला पड़ जाता है और फल की गुणवत्ता कम हो जाती है.

* रोकथाम के लिए प्रकाशपाश का इस्तेमाल कर के पतंगों को इकट्ठा कर के मार देना चाहिए.

* शीरा या शक्कर की 100 ग्राम मात्रा के 1 लीटर पानी में बनाए घोल में 10 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ईसी मिला कर मिट्टी के प्यालों में 100 मिलीलीटर प्रति प्याला के हिसाब से पेड़ों पर कई जगह पर टांग देना चाहिए.

* मैलाथियान 50 ईसी की 1 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़कव करना चाहिए.

Citrus Fruits

लीफ माइनर, सिट्रस सिल्ला व रेड स्पाइडर माइट : लीफ माइनर की लटें बहुत छोटी होती हैं. ये पत्तियों में सुरंग बनाती हैं. बारिश के मौसम में इन का हमला ज्यादा होता है.

सिट्रस सिल्ला का आक्रमण नई पत्तियों व कोमल भागों में होता है. ये पत्तियों से रस चूसते हैं, जिस के कारण पत्तियां सिकुड़ जाती हैं.

इस कीट का हमला बारिश के मौसम में ज्यादा होता है.

रेड स्पाइडर माइट पत्तियों के ऊपरी सिरों से रस चूसती है. कभीकभी यह बहुत ही ज्यादा नुकसान पहुंचाती है.

रोकथाम के लिए फोरमोथियोन 25 ईसी (सेस्थियो) का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर छिड़काव करें. सिट्रस सिल्ला की रोकथाम के लिए नई पत्तियां आने पर छिड़काव करना जरूरी है. यह रसायन मिलीबग की भी रोकथाम करता है.

मूल ग्रंथी (सूत्रकृमि) : इस का हमला नीबू की जड़ों पर होता है. इस के हमले से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, टहनियां सूखने लगती हैं और जड़ गुच्छेदार बन जाती है. इस के असर से पेड़ पर फल छोटे व कम लगते हैं और जल्दी गिर जाते हैं.

रोकथाम के लिए कार्बोफ्यूरान 3 जी 20 ग्राम प्रति पेड़ की दर से इस्तेमाल करें.

बीमारियों की रोकथाम

नीबू का केंकर रोग: जीवाणु से होने वाले इस रोग से पत्तियों, टहनियों व फलों पर भूरे रंग के कटे खुरदरे व कार्कनुमा धब्बे पड़ जाते हैं. रोगी पत्तियां गिर जाती हैं. टहनियों व शाखाओं पर लंबे घाव बनते हैं, जिस से टहनियां टूट जाती हैं. इस रोग से कागजी नीबू को ज्यादा नुकसान होता है.

रोकथाम के लिए नए बगीचे में हमेशा रोग रहित नर्सरी के पौधे ही इस्तेमाल में लाएं और रोपाई से पहले पौधों पर बोर्डों मिश्रण (4:4:50) या ताम्रयुक्त कवकनाशी (ब्लाइटाक्स) 0.3 फीसदी का छिड़काव करें.

रोग के प्रकोप को रोकने के लिए कटाईछंटाई के बाद जून से अक्तूबर तक बोर्डों मिश्रण (4:4:50) या स्ट्रेप्टोसाक्लिन 250-500 मिलीग्राम प्रति लीटर के घोल का 20 दिनों के अंतर पर फरवरी और मार्च के महीनों में छिड़काव करें.

गोदाति रोग (गमोसिस) : इस रोग के कारण तनों पर जमीन के पास से और टहनियों के रोगग्रस्त भाग से गोंद जैसा पदार्थ निकल कर छाल पर बूंदों के रूप में इकट्ठा हो जाता है, जिस की वजह से छाल सूख कर फट जाती है और भीतरी भाग भूरे रंग का हो जाता है. रोग के हमले से अंत में पेड़ फटने की स्थिति में पहुंच जाता है.

रोकथाम के लिए रोगग्रस्त छाल खुरचने के बाद रिडोमिल एमजेड 20 ग्राम व अलसी का तेल 1 लीटर को अच्छी तरह मिला कर या ताम्रयुक्त कवकनाशी का लेप कर दीजिए और इन्हीं कवकनाशी के 0.3 फीसदी या रिडोमिल एमजेड 25 से 0.2 फीसदी घोल के 4-5 छिड़काव 15 दिनों के अंतर पर कीजिए. इस के अलावा बगीचे की सही देखभाल, पानी के अच्छे निकास, धूपहवा वगैरह का पूरा ध्यान इस रोग से बचाव के लिए जरूरी है.

विदर टिप या डाई बैक : इस रोग से पत्तियों पर भूरेबैगनी धब्बे पड़ जाते हैं.

टहनियां ऊपर से नीचे की ओर सूखती हुई भूरी हो जाती हैं और पत्तियां सूख कर गिर जाती है.

रोकथाम के लिए रोगयुक्त भाग की छंटाई के बाद ताम्र युक्त कवकनाशी (कापर आक्सीक्लोराइड) 3 ग्राम या मैंकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव बारिश के मौसम में 15 दिनों व सर्दी के मौसम में 20 दिनों के अंतर पर करना चाहिए. इस के अलावा साल में 2 बार (फरवरी और अप्रैल में) सूक्ष्म तत्त्वों का छिड़काव करें.

फलों का गिरना: तोड़ाई के 5 हफ्ते पहले से फल गिरने लग जाते हैं. इन की रोकथाम के लिए 1 ग्राम 2-4 डी 100 लीटर पानी में या प्लेनोफिक्स हारमोन्स 1 मिलीलीटर प्रति 4 से 5 लीटर पानी में घोल कर संतरा और मौसमी के पेड़ों पर छिड़कना चाहिए.

तोड़ाई व उपज : संतरा, माल्टा व नीबू का रंग जब हलका पीला हो जाए, तब इन की तोड़ाई करनी चाहिए.

मौसमी, संतरा और माल्टा की उपज प्रति पौधा 70 से 80 किलोग्राम होती है. कागजी नीबू में 40 से 50 किलोग्राम प्रति पौधा उपज हासिल होती है.