Insurance : समुद्री मछुआरों के लिए बीमा

Insurance: मत्स्यपालन विभाग, मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय भारत में मात्स्यिकी क्षेत्र के स्थाई  और विकास और मछुआरों के कल्याण के माध्यम से नीली क्रांति लाने के लिए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 20,050 करोड़ रुपए के निवेश से प्रमुख योजना ‘प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना’ का कार्यान्वयन कर रहा है.

यह योजना अन्य बातों के साथसाथ, अंतर्देशीय मछुआरों और मत्स्य श्रमिकों सहित मछुआरों को समूह दुर्घटना बीमा कवरेज के माध्यम से सामाजिक सुरक्षा उपाय प्रदान करती है, जिस में समुद्री और अंतर्देशीय मछुआरों और संबंधित मत्स्य श्रमिकों दोनों को शामिल किया जाता है, जिस में संपूर्ण बीमा प्रीमियम राशि केंद्र और राज्य के बीच सामान्य राज्यों के लिए 60:40 के अनुपात में, हिमालयी और पूर्वोत्तर राज्यों के लिए 90:10 के अनुपात में साझा की जाती है.

जबकि केंद्रशासित प्रदेशों के मामले में, सारी प्रीमियम राशि केंद्र द्वारा भुगतान की जाती है. प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के अंतर्गत प्रदान की जाने वाली बीमा कवरेज में मृत्यु या स्थायी पूर्ण शारीरिक अक्षमता के लिए 5 लाख रुपए, स्थायी आंशिक शारीरिक अक्षमता के लिए ढाई लाख रुपए और दुर्घटना की स्थिति में अस्पताल में भर्ती होने पर 25 हजार रुपए की राशि प्रदान की जाती है. प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के कार्यान्वयन के बीते 3 सालों में (2022-23 से 2024-25) के दौरान, केंद्र सरकार ने 103.73 लाख मछुआरों के बीमा कवरेज के लिए 54.03 करोड़ रुपए की राशि जारी की है, जिस में सालाना औसतन 34.57 लाख मछुआरे शामिल हैं.

Arhar : अरहर की बीजोत्पादन तकनीक पर प्रशिक्षण

Arhar : आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, अयोध्या के अंतर्गत संचालित कृषि विज्ञान केंद्र सोहांव, बलिया द्वारा केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अध्यक्ष डा. संजीत कुमार के दिशानिर्देशन में अरहर की बीजोत्पादन तकनीक पर 25 से 29 जुलाई, 2025 के दौरान 5 दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया गया. जिस में 25 किसानों ने भाग लिया.

केंद्र के सस्य वैज्ञानिक डा. सोमेंद्र नाथ ने बीज के प्रकार, बीजोपचार, बोआई की विधि, उन्नतशील प्रजातियां खरपतवार प्रबंधन आदि विषय पर अरहर बीज उत्पादन तकनीक के बारे में विस्तृत रूप से जानकारी प्रदान की. कृषि विज्ञान केंद्र के अन्य वैज्ञानिकगण, डा. मनोज कुमार (जीपीबी) ने बीज के प्रकार और प्रमाणीकरण के संबंध में जानकारी प्रदान की.

डा. अनिल कुमार पाल (मृदा विज्ञान), ने अरहर की फसल में एकीकृत पोषक तत्त्व प्रबंधन के बारे में जानकारी दी. केंद्र के कीट/सूत्रकृमि वैज्ञानिक डा. अभिषेक यादव ने अरहर की फसल में लगने वाले मुख्य रोगों जैसे उकठा, बांझ और मुख्य कीट फली छेदक, पत्ती लपेटक आदि के बारे में जानकारी प्रदान की. इस कार्यक्रम के दौरान धर्मेंद्र कुमार, राकेश कुमार सिंह, रामतौल आदि कर्मचारी उपस्थित रहे.

Environmental Protection : शुभावरी चौहान का सराहनीय प्रयास

Environmental Protection : आज के युग में जब दुनिया भर में पेड़ों की कटाई, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं, ऐसे समय में हर एक व्यक्ति का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है. इसी कड़ी में शुभावरी चौहान ने अपने गांव में नीम के 200 पेड़ और कनेर अवल के कई पौधे लगा कर एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है.

नीम का पेड़ न केवल छाया देता है, बल्कि इस की औषधीय विशेषताएं भी अनगिनत हैं. यह हवा को शुद्ध करता है, मच्छरों को दूर करता है और अनेक रोगों के उपचार में सहायक होता है. वहीं कनेर अवल के पौधे अपने सुंदर फूलों और वातावरण को शीतल बनाने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध हैं. इन दोनों प्रजातियों के वृक्षारोपण से गांव का वातावरण न केवल सुंदर बनेगा, बल्कि स्वच्छ और स्वास्थ्यवर्धक भी होगा.

Environmental Protection

शुभावरी चौहान का यह कार्य यह दर्शाता है कि पर्यावरण की रक्षा केवल सरकारों की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि प्रत्येक नागरिक की भी है और हर एक नागरिक इस में अहम भूमिका निभा सकता है. जब एक व्यक्ति अपने प्रयासों से सैकड़ों पेड़ लगा सकता है, तो यदि हर व्यक्ति इसी भावना से प्रेरित हो, तो पर्यावरण संरक्षण का लक्ष्य बहुत जल्द पूरा हो सकता है.

Environmental Protection

इस पहल से गांववासियों में भी हरियाली के प्रति जागरूकता बढ़ेगी और आने वाली पीढ़ियों को भी एक बेहतर पर्यावरण मिलेगा. ऐसे प्रयास न केवल आज के लिए, बल्कि भविष्य के लिए भी एक अमूल्य उपहार है.

धरती को हराभरा बनाना है, तो पेड़पौधे लगाना है. शुभावरी चौहान जैसे नागरिकों से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए और प्रकृति की सेवा में अपना योगदान देना चाहिए.

Beans : सेम की उन्नत खेती

Beans : सेम एक ठंडी जलवायु वाली फसल है. इस की मुलायम फलियों की सब्जी या भर्ता बनाया जाता है. सब्जी अकेले या आलू के साथ मिला कर बनाई जाती है. इस की फलियों से स्वादिष्ट आचार भी बनाया जा सकता है. इन फलियों में प्रोटीन, खनिज तत्त्व, कार्बोहाइड्रेट्स और रेशा प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. इस के अतिरिक्त इस फली में  विटामिन बी, सी,आयरन, कैल्शियम, सोडियम, फास्फोरस, मैग्नीशियम, पोटैशियम, सल्फर इत्यादि भी पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं. परिपक्व बीजों में विशेषकर काले रंग वाले बीज में ट्रिप्सिन नामक अवरोधक पदार्थ होता है जो उबालने पर समाप्त हो जाता है और जल में घुलनशील विशैला पदार्थ निकल जाता है. इसलिए इस के बीजों को उबाल कर ही खाना चाहिए. सेम की सब्जी का लगातार सेवन नही करना चाहिए. इस का ज्यादा सेवन हानिकारक होता है.

मृदा : इस के लिए रेतीली दोमट मिट्टी उपयुक्त मानी जाती है. सेम की खेती के लिए उचित जल निकासी और 6.0 से 7.5 के बीच पीएच स्तर वाली मिट्टी की आवश्यकता होती है. सेम की खेती के लिए 18 से 30 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान सही रहता है.

सेम की कुछ प्रमुख प्रजातियां : काशी हरितिमा, काशी खुशहाल, काशी शीतल, काशी बौनी सेम-3, काशी बौनी सेम-9, पूसा सेम-2, पूसा सेम-3, जवाहर सेम-53, जवाहर सेम-79, रजनी, अर्का विजय व अर्का जय है. बोआई के 55-60 दिनों के बाद फूल आना शुरू हो जाता है और 70-75 दिनों में फलियां खाने योग्य हो जाती है. प्रति हेक्टेयर में 70- 125 क्विंटल उत्पादन होता है.

सिंचाई : खेत में नमी बनाए रखने के लिए समयसमय पर सिंचाई करना आवश्यक है.

बोआई का समय : सेम की बोआई का सब से सही समय जुलाईअगस्त का महीना है. पंक्ति से पंक्ति की दूरी 100 सैंटीमीटर पौध से पौध की दूरी 75 सैंटीमीटर रखनी चाहिए.

खाद और उर्वरक : बोआई से पहले खेत में 250 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद भूमि की तैयारी के समय खेत में मिला देना चाहिए. इस के अतिरिक्त तत्त्व के रुप में मृदा परीक्षण के आधार पर 20-30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-50 किलोग्राम फास्फोरस और 40-50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना आवश्यक है. नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बीज बोआई के समय खेत में प्रयोग करें. नाइट्रोजन की बची मात्रा को 2 बराबर भागों में बांट कर 20-25 व 35-40 दिनों के बाद टौप ड्रैसिंग के रूप में उपयोग करना चाहिए.

रोग और कीट प्रबंधन : सेम की फसल में लगने वाले रोगों और कीटों से बचाव के लिए उचित उपाय करना चाहिए.

तुड़ाई : जब सेम की फलियां पूरी तरह से विकसित हो जाएं और कोमल हों, तो फलियों की तुड़ाई करनी चाहिए.

सेम की खेती से लाभ
– सेम की फसल कम समय में तैयार हो जाती है.
– यह एक लाभदायक फसल है और किसानों को अच्छी कमाई दे सकती है.
– सेम की खेती में कम लागत आती है.
– सिंचाई की भी कम आवश्यकता होती है.

सेम की खेती के लिए कुछ अतिरिक्त सुझाव

बीजों को कवकनाशी से उपचारित कर के बोना चाहिए.
– खरपतवारों को नियंत्रित करना चाहिए।
– मचान बना कर सेम की बेलों को ऊपर चढ़ाना चाहिए.
– फसल की नियमित निगरानी करनी चाहिए और रोगों और कीटों के लक्षणों को पहचान कर तुरंत उपाय करना चाहिए.

Maize : मक्का की फसल में खरपतवार पर किसान प्रशिक्षण 

Maize : अखिल भारतीय मक्का अनुसंधान परियोजना के अतंर्गत मक्का की फसल में लगने वाले खरपतवार, कीट, रोग और सूत्रकृमि विषय पर गांव रुण्डेला, चंगेडी, इंटाली और मोरजाई के किसानों को इन से होने वाले नुकसान के बारे में जानकारी दी गई. साथ ही खरपतवार और कीटनाशी भी बांटे गए. डा. हरीश कुमार सुमेरिया ने बताया कि मक्के की फसल को जिद्दी खरपतवारों का खतरा बहुत रहता है जो फसल की शुरुआती बढ़वार में आवश्यक पोषक तत्त्व पानी और धूप के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं जिस कारण फसल का उत्पादन बहुत कम हो जाता है.

डा. हरीश कुमार सुमेरिया ने आगे बताया कि मक्के की फसल में कौनकौन से खरपतवार होते हैं और उन की कैसे पहचान करें, छिड़काव का सही समय, खरपतवारनाशी का घोल कैसे तैयार करें, छिड़काव के समय कौनकौन सी सावधानियां बरतें. डा. राम नारायण कुमार ने मक्का में लगने वाले कीट, सूत्रकृमि और रोग की पहचान सही समय पर और सही कीटनाशक दवाई का इस्तेमाल करने के बारे में किसानों को जानकारी दी.

इस कार्यक्रम के परियोजना प्रभारी डा. अमित दाधीच ने बताया कि किसानों को अब परंपरागत मक्का की किस्म को छोड़ कर अधिक उपज देने वाली, कीट, रोग, सूत्रकृमि प्रतिरोधक और कम पानी में दोगुना उत्पादन देने वाली फसलों की बोआई को अपने खेत में शामिल करना होगा.

Arhar : अरहर की खेती में होगी कमाई

Arhar : अरहर को ज्वार, बाजरा, उड़द व कपास वगैरह फसलों के साथ बोया जाता है. इस की फसल के लिए बलुई दोमट मिट्टी वाले खेत सब से अच्छे होते हैं. इस के अलावा अरहर की खेती के लिए ढलान वाले खेत सब से सही होते हैं. ढलान वाले खेतों में पानी रुकता नहीं है. अरहर बोने के लिए खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद 2 से 3 बार कल्टीवेटर से खेत की जुताई करनी चाहिए.

अरहर बोने का समय : अगेती अरहर (टा 21) बोने का समय अप्रैल से मई के बीच में होता है. जहां सिंचाई के अच्छे साधन हैं, वहां पर जून में और देर से पकने वाली अरहर की बोआई 15 जुलाई तक जरूर कर देनी चाहिए.

बीजों का उपचार : 1 किलोग्राम बीजों को 2 ग्राम थीरम और 1 ग्राम कार्बेंडाजिम से उपचारित करना चाहिए. बीज बोने से पहले अरहर का उपचार राइजोबियम से करना चाहिए. 1 पैकेट राइजोबियम कल्चर 10 किलोग्राम बीज के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है. जिस खेत में अरहर पहली बार बोई जा रही हो, वहां पर कल्चर का इस्तेमाल जरूर करना चाहिए.

बीज की मात्रा : अरहर के 1 हेक्टेयर खेत के लिए 12 से 15 किलोग्राम बीजों की जरूरत होती है. अगर पानी का प्रभाव खेत में है तो बहार किस्म वाली अरहर सितंबर महीने तक 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बोनी चाहिए. अरहर की किस्म और मौसम के हिसाब से बीजों की मात्रा और पौधे से पौधे के बीच की दूरी रखनी चाहिए. अरहर की बोआई करने के लिए देशी हल का इस्तेमाल सही रहता है. अरहर की एक लाइन से दूसरी लाइन की दूरी 20 से 90 सेंटीमीटर के बीच रखी जाती है. दूरी बीज के हिसाब से रखते हैं. आईसीपीएल 151 की दूरी 30 से 45 सेंटीमीटर, टा 17 की दूरी 120 सेंटीमीटर, टा 21 की दूरी 75 सेंटीमीटर, टा 7 और आजाद की दूरी 90 सेंटीमीटर लाइन से लाइन के बीच रखनी चाहिए. अरहर की सभी किस्मों के लिए पौधे से पौधे के बीच की दूरी 20 से 30 सेंटीमीटर रखनी चाहिए.

खाद का प्रयोग : अरहर की अच्छी पैदावार के लिए 10 से 15 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 से 45 किलोग्राम फास्फोरस और 20 किलोग्राम सल्फर का इस्तेमाल 1 हेक्टेयर खेत में करना चाहिए. अरहर के लिए सिंगल सुपर फास्फेट व डाई अमोनिया फास्फेट का इस्तेमाल फायदेमंद होता है.

अरहर की फसल में सिंचाई का भी खास खयाल रखना चाहिए. टा-21, यूपीएएस 120, आईसीपीएल 151 को पलेवा कर के बोना चाहिए. दूसरे किस्म की अरहर को बोने के लिए बारिश में नमी होने पर बोना चाहिए. खेत में कम नमी हो तो फलियां बनते समय अक्तूबर के महीने में सिंचाई करनी पड़ती है. देर से पकने वाली किस्मों में अरहर को पाले से बचाने के लिए दिसंबर और जनवरी महीने में सिंचाई करना फायदेमंद होता है.

निराई व गुड़ाई : अरहर के खेत में पहली निराई बोआई के 1 महीने के अंदर होनी चाहिए. दूसरी निराई पहली निराई के 20 दिनों के बाद करनी चाहिए. घास और चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नष्ट करने के लिए पेंडीमेथलीन 30 ईसी 3 लीटर और एलाक्लोर 50 ईसी 4 लीटर को 700 से 800 लीटर पानी में घोल कर बोआई के बाद पाटा लगा कर अरहर जमने से पहले छिड़काव करें.

कीट व बीमारियां : अरहर  फसल में उकठा और बांझा किस्म के रोग होते हैं. इस के अलावा फली बेधक कीट व पत्ती लपेटक कीट, फलों की मक्खी भी अरहर के पौधों को नुकसान पहुंचाती हैं.

उकठा रोग में अरहर की पत्तियां पीली पड़ कर सूख जाती हैं और पौधा सूख जाता है. जड़ें सड़ कर गहरे रंग की हो जाती हैं. छाल हटा कर देखने पर जड़ से तने तक की ऊंचाई में काले रंग की धारियां पाई जाती हैं. इस से बचाव के लिए इस रोग लगे खेत में 3 से 4 सालों तक अरहर की खेती नहीं करनी चाहिए. थीरम और कार्बेंडाजिम को 2:1 के अनुपात में मिला कर 3 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीज को उपचारित कर के बोना चाहिए. अगर अरहर को ज्वार के साथ बोते हैं, तो यह रोग काफी कम हो जाता है.

अरहर को बांझा रोग बहुत नुकसान पहुंचाता है. इस रोग में अरहर की पत्तियां छोटी हो जाती हैं. फूल नहीं आते हैं. जिस से दाने नहीं बनते. यह रोग माइट द्वारा फैलता है. इस का कोई असरदार उपचार नहीं होता है. बहार, नरेंद्र और अमर किस्म की खेती कर के अरहर को इस रोग से बचाया जा सकता है.

Oilseeds and Pulses : अनाज नहीं तिलहनदलहन उत्पादन हो पहला लक्ष्य

Oilseeds and Pulses : उपमहानिदेशक भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली डा. राजबीर सिंह ने पिछले दिनों आयोजित 23वीं प्रसार शिक्षा परिषद् की बैठक में बतौर मुख्य अतिथि के रूप में किसानों से बात करते हुए कहा कि यदि कृषि वैज्ञानिक, प्रसार और किसान एक साथ मिल कर काम करें तो कृषि के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया जा सकता है. सही माने में किसान ही देश का सच्चा व अच्छा वैज्ञानिक है क्योंकि खेत पर आने वाली दिक्कतों के समाधान के लिए वह दिनरात दिमाग लगा कर कोई न काई जुगाड़ कर ही लेता है. किसानों के इन नवाचारों को कैप्चर कर लैब में ला कर रिफाइंड करें और कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से देश भर में पहुंचाए, ताकि सभी किसानों को इस का लाभ मिल सके.

प्रसार शिक्षा निदेशालय, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय सभागार में आयेाजित इस सालाना बैठक में विश्वविद्यालय से संबंधित 8 कृषि विज्ञान केंद्र भीलवाड़ा प्रथम, द्वितीय, डूंगरपुर, चित्तौड़गढ़, उदयपुर-द्वितीय, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, राजसमंद के प्रभारी, इफ्को प्रतिनिधियों व किसानों ने भाग लिया था.

डीडीजी (प्रसार) डा. राजबीर सिंह ने कहा इस का सब से बड़ा प्रमाण 29 मई से 12 जून तक देशभर में चलाया गया विकसित कृषि संकल्प अभियान है. इस अभियान में देशभर में कार्यरत केंद्र व राज्य की कृषि में कार्यरत संस्थाएं, कृषि विभाग और कृषि विज्ञान केंद्रों ने सामूहिक प्रयासों से 1.35 करोड़ किसानों तक पहुंच बनाई और उन्हें किसान उपयोगी योजनाओं से अवगत कराया.

इस अभियान में राजस्थान का योगदान अकल्पनीय रहा. देश में 12 करोड़ किसान है. राजस्थान ने एक पखवाड़े के अभियान में 2 लाख महिलाओं सहित 8 लाख किसानों से न केवल संवाद किया, बल्कि योजनाओं की जानकारी भी दी.

उन्होंने कहा कि वर्तमान में देश में 731 केवीके कार्यरत हैं. सभी केवीके को आत्मवलोकन व अध्ययन करना होगा कि उन की उपस्थिति से किसान, उन के परिवार या बच्चों की जीवनचर्या में क्या बदलाव आए? भविष्य में हर कृषि विज्ञान केंद्र को मिनी विश्वविद्यालय के रूप में तैयार करने की दिशा में प्रयास करने होंगे. केवीके भविष्य में ‘हब औफ एक्टीविटी’ का केंद्र बने ताकि, किसानों को एक ही छत के नीचे सारी जानकारी और सुविधा मिल सके. जलवायु परिवर्तन के दौर में नवीन तकनीकों के साथसाथ कंटीजेंसी प्लान पर भी काम करना होगा.

उन्होंने कहा कि 1984 में कृषि मंत्रालय के अस्तित्व का विस्तार करते हुए 8 मंत्रालयों यथा जलशक्ति, फर्टिलाइजर, ग्रामीण विकास, पशुपालन, फूड प्रोसैसिंग में बांट दिया गया. जबकि ये सभी कृषि की ही शाखाएं हैं.

इस बैठक की अध्यक्षता करते हुए कुलपति एमपीयूएटी डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि खाद्यान्न उत्पादन पर खूब काम हो गया. अब तो भंडारण तक में परेशानी आने लगी है. कृषि वैज्ञानिकों व किसानों का ध्यान अब दलहनतिलहन उत्पादन की ओर होना चाहिए, ताकि खाद्य तेलों के मामले में हम आत्मनिर्भर बन सके.

उन्होंने कहा कि साल 2024-25 के तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार भारत का खाद्यान उत्पादन लगभग 354 मिलियन टन रहा, जो पिछले साल की तुलना में लगभग 6.5-6.6 फीसदी अधिक है. उद्यानिकी उत्पादन 362 मिलियन टन, दूध उत्पादन रिकौर्ड 239.3 मिलियन टन व अंडा उत्पादन में रिकौर्ड स्थापित कर चुका है. कृषि में रसायनों के उपयोग को कम करने के लिए प्राकृतिक खेती को भी बढ़ावा देना होगा जो उत्पादन में निश्चितता ला सकती है.

उन्होंने कहा कि एमपीयूएटी को समग्र कार्य में उत्कृष्टता के लिए राजस्थान के राज्य वित्त पोषित विश्वविद्यालयों में से 24 जून, 2022 को “प्रथम कुलाधिपति पुरस्कार” प्राप्त हुआ. एमपीयूएटी को विश्वविद्यालय सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वहन के लिए राज्यपाल की “स्मार्ट विलेज पहल” के तहत भी समस्त राज्य वित्त पोषित विश्वविद्यालयों में सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया था.

बीते कुछ सालों में एमपीयूएटी ने अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय व प्रादेशिक स्तर पर प्रतिष्ठित संस्थाओं की सहभागिता से शिक्षण और अनुसंधान में उत्कृष्टता लाने के लिए 81 समझौतों के ज्ञापन किए गए हैं. इन में से 33 पिछले ढाई साल में हुए हैं. खासकर वेस्टर्न सिडनी विश्वविद्यालय (आस्ट्रेलिया), सैंट्रल लुजौन विश्वविद्यालय (फिलीपींस), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के अनेक राष्ट्रीय संस्थान, विश्वविद्यालय, औद्योगिक प्रतिष्ठान आदि सम्मिलित हैं.

हमारी भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् की साल 2021 रैंकिंग 15 है और इस रैंकिंग में राजस्थान प्रदेश के 6 कृषि व पशु चिकित्सा विश्वविद्यालयों में एमपीयूएटी प्रथम स्थान पर हैं. वर्तमान में हमारा शोध तंत्र भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् की 27 अखिल भारतीय अनुसंधान परियोजनाओं, 3 नैटवर्किंग परियोजनाओं, 6 स्वैच्छिक केंद्रों, 11 अन्य प्रायोजित परियोजनाओं, 5 आरकेवीवाई और 45 निजी वित्त पोषित परियोजनाओं से युक्त है. हमारे शोध वैज्ञानिकों द्वारा बीते 3 सालों में किसान उपयोगी 280 सिफारिशों को कृषि विभाग द्वारा संभागीय पैकेज औफ प्रैक्टिसेज में सम्मिलित किया गया है.

 हाईटेक एग्रीकल्चर, कृषि पर्यटन पर जोर

विशिष्ट अतिथि प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक डा. चंदेशवर तिवारी ने कहा कि वर्तमान में सभी की निगाहें केवीके पर है. आदिवासी क्षेत्रों में इनोवेशन की अपार संभावनाएं है. उन्होंने राय दी कि प्रसार शिक्षा निदेशालयों को सर्टिफिकेट, डिप्लोमा कोर्स कराने चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा युवाओं को कृषि से जोड़ा जा सके.

निदेशक अटारी जोधपुर डा. जेपी मिश्रा ने कहा कि अब समय कम रसायन वाली खेती, प्राकृतिक खेती, जल संरक्षण पर ध्यान देने का है. केवीके इस में विशेष भूमिका निभा सकते हैं. कार्यक्रम की शुरुआत में प्रसार शिक्षा निदेशक डा. आरएल सोनी ने प्रसार शिक्षा परिषद् की बैठक 2024 में लिए गए निर्णयों की क्रियान्वयन रिपोर्ट प्रस्तुत की. साथ ही 2025 का प्रस्तावित ऐजेंडा साझा किया. डा.आरएल सोनी ने कहा कि विकसित भारत 2047 के परिप्रेक्ष्य में कृषि विज्ञान केंद्रों को और ज्यादा मजबूत करना होगा. संरक्षित खेती, हाईटैक एग्रीकल्चर, जलवायु रेजिलिएंट तकनीक, कृषि पर्यटन आदि क्षेत्र में कार्य करने की योजना है.

प्रकाशनों का विमोचन

इस मौके पर अतिथियों ने विश्वविद्यालयों के विभिन्न प्रकाशनों विकसित कृषि संकल्प अभियान, फलसब्जी प्रसंस्करण और मूल्य संवर्द्धन पर उद्यमिता विकास, प्राकृतिक खेती, किसानों की सेवा में प्रसार शिक्षा निदेशालय व राजस्थान खेती प्रताप के नवीन संस्करण का विमोचन किया.
इस कार्यक्रम में डा. अरविंद वर्मा, डा. आरबी दुबे, डा. सुनील जोशी, डा. आरए कौशिक, डा. लोकेश गुप्ता, डा. धृति सौलंकी, डा. मनोज कुमार महला, डा. एलएल पंवार और डा. आरपी मीना वरिष्ठ अधिकारी परिषद सदस्यों सहित केवीके प्रभारी मौजूद थे. इस कार्यक्रम का संचालन प्रो. डा. लतिका व्यास ने किया.

Blue-green Algae : नीलहरित शैवाल से धान की होगी बंपर पैदावार

Blue-green Algae : धान की खेती में उपज बढ़ाने के लिए नीलहरित शैवाल का बड़ा योगदान होता है. इस के लिए किसान कम खर्च में प्राकृतिक तरीके से धान की पैदावार बढ़ा सकते हैं. धान की नर्सरी 20 से 25 दिन की हो गई हो तो तैयार किए गए खेतों में धान की रोपाई कर दें. पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 सैंटीमीटर और पौध से पौध की दूरी 10 सैंटीमीटर रखें जिस से पौधों का विकास अच्छा होगा और ट्रेलर्स भी अच्छे निकलेंगे.

धान की खेती के लिए 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से डालें. यदि आप के पास नीलहरित शैवाल है तो उस का भी उपयोग करें. नीलहरित शैवाल का एक पैकेट प्रति एकड़ की दर से उन खेतों में प्रयोग करें जहां पानी खड़ा रहता है. इन खेतों में यदि नीलहरित शैवाल का प्रयोग किया जाएगा, तो उस से नाइट्रोजन की पूर्ति भी होगी और पौधों की बढ़वार भी अच्छी हो सकेगी.

धान के पौधों का रंग पीला पड़ रहा हो और पौधों की ऊपरी पत्तियां पीली और नीचे की हरी हो तो जिंक सल्फेट हेप्टएहाइड्रेट 21फीसदी को 6 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 300 लिटर पानी में घोल कर स्प्रे करें. इस से आप के खेत में जो पीलापन दिखाई दे रहा है वह खत्म हो जाएगा. फसल में यदि पीलापन है तो समझ लीजिए कि आप के खेत की मिट्टी में जिंक की कमी है. इसलिए समय पर इस की पूर्ति कर देंगे तो धान का उत्पादन अच्छा होगा.

Agricultural Partnership : भारत रूस कृषि साझेदारी का नया सेतु बनेंगे

Agricultural Partnership : भारत के कृषि जगत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को नई ऊंचाइयों पर ले जाने वाले बस्तर के गौरव डा. राजाराम त्रिपाठी 28 जुलाई से 7 अगस्त 2025 तक रूस की ऐतिहासिक यात्रा पर जा रहे हैं. इस विशेष यात्रा के दौरान रूस के अग्रणी कृषि विशेषज्ञ, उद्यमी और और्गैनिक उत्पादों से जुड़े दिग्गज, डा. राजाराम त्रिपाठी के साथ संवाद स्थापित कर परस्पर सहयोग की रणनीति बनाएंगे. बस्तर जैसे अंचल से वैश्विक मंच पर पहुंचने वाले डा. राजाराम त्रिपाठी की यह यात्रा न केवल भारत बल्कि रूस के कृषि जगत के लिए भी नई संभावनाओं का द्वार खोलेगी.

इस अवसर पर डाक्टर राजाराम त्रिपाठी ने कहा कि भारत अपने उन्नत खेती के जरीए ही अतीत में सोने की चिड़िया कहलाता था. तमाम समस्याओं के बावजूद भारत के कृषि क्षेत्र में देश के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए अपार संभावनाएं निहित हैं.

कृषि जागरण समूह की विशेष पहल पर मौस्को और सेंट पीटर्सबर्ग में रूस के शीर्ष कृषि विशेषज्ञों और उद्यमियों के साथ होने वाली यह बैठकें  भारत-रूस के बीच सतत कृषि, और्गैनिक  हर्बल निर्यात और नवाचार सहयोग के नए अवसर खोलेगी.

बस्तर के पिछड़े अंचल में जन्मे डा. राजाराम त्रिपाठी आज वैश्विक मंच पर भारतीय कृषि की एक सशक्त आवाज हैं. वे भारत के पहले अंतर्राष्ट्रीय प्रमाणित और्गैनिक हर्बल फार्म “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म” के संस्थापक हैं. उन्होंने विश्वस्तरीय काली मिर्च प्रजाति एमडीबीपी-16 विकसित कर कृषि उत्पादन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया है. सफेद मूसली उत्पादन व गुणवत्ता में उन का फार्म वैश्विक स्तर पर नंबर एक पर माना जाता है.

सिर्फ कुछ महीने पहले ही ब्राजील सरकार ने उन्हें कृषि भ्रमण हेतु आमंत्रित किया था और अब रूस का यह सम्मान भारत और बस्तर दोनों के लिए गर्व का क्षण है. स्टीविया की विशेष ‘बिटर फ्री’ किस्म, आयुर्वेदिक उत्पादों में शोध व नवाचार और 7 बार राष्ट्रीय स्तर पर कृषि मंत्रियों द्वारा सम्मानित होने का उन का रिकौर्ड उन्हें देश का सब से विशिष्ट और बहुश्रुत किसान नेता बनाता है.

डा. राजाराम त्रिपाठी की यह रूस यात्रा न केवल भारत रूस कृषि संबंधों को गहरा करेगी, बल्कि छत्तीसगढ़ और बस्तर की धरती के गौरव को भी वैश्विक मानचित्र पर उजागर करेगी.

Training : वैज्ञानिक पशुपालन पर हुआ प्रशिक्षण

Training : केंद्रीय भेड़ व ऊन अनुसंधान संस्थान अविकानगर में पिछले दिनों केंद्रीय गौवंश अनुसंधान संस्थान मेरठ उत्तर प्रदेश की अनुसूचित जाति उपयोजना में टोंक जिले के अनुसूचित जाति के किसानों को दो दिवसीय प्रशिक्षण “वैज्ञानिक पद्धति से पशुपालन” विषय पर अविकानगर के किसान हास्टल में आयोजित किया गया था.

इस प्रशिक्षण कार्यक्रम में मुख्यअतिथि के रूप में नेशनल ब्यूरो औफ एनिमल जैनेटिक्स रिसोर्सेज करनाल हरियाणा संस्थान के निदेशक डा. एनएच मोहन, कार्यक्रम के अध्यक्ष डा. अरुण कुमार तोमर और विशिष्ट अथिति, डा. संजीव कुमार वर्मा नोडल अधिकारी एसीएसपी उपयोजना मेरठ भी उपस्थित रहे और सभी प्रशिक्षण में भाग ले रहे किसानों को प्रमाणपत्र दिया.

इस कार्यक्रम के अध्यक्ष निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर ने “हे शहर तेरा पेट भरते हैं मेरे गांव के खेत” कहते हुए भारत देश में बढ़ती शहरी आबादी के लिए खेती ओर पशुपालन के विभिन्न उत्पादों को कमर्शियल करते हुए सीधे उपभोक्ता तक ले जाना का सुझाव वहां मौजूद किसानों को दिया.

डा. अरुण कुमार तोमर ने आत्मनिर्भर भारत और विकसित भारत के लिए विभिन्न पशुपालन व खेती आधारित स्टार्टअप के विकास पर बल देते हुए वहां मौजूद किसानों को आजीविका बढ़ाने के उपाय पर चर्चा की.  इस कार्यक्रम के मुख्यअथिति निदेशक करनाल संस्थान डा. एनएच मोहन द्वारा भी देश की देशी पशु की विभिन्न नस्लों के संरक्षण पर जोर देते हुए बेहतर पशुपोषण और आवास प्रबंधन पर किसानों को फोकस करने का सुझाव दिया.

उन्होंने कहा कि  हमारे देश के पशुधन संपदा के अधिक उत्पादन के लिए वर्तमान में बेहतर प्रबंधन की जरूरत है और इसी को प्रेरित करने के लिए ही इसी तरह के कार्यक्रम हमारी भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् नई दिल्ली के विभिन्न संस्थान देशभर के किसान के लिए आयोजित कर रहे हैं. इस दो दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का समन्वयक, मंच संचालन और धन्यवाद प्रस्ताव डा. मेघा पांडे, डा. राजेश बिशनोई और डा. संजीव वर्मा द्वारा किया गया.

इस कार्यक्रम में पंजीकृत 90 अनुसूचित जाति किसानों को पशुपालन उपयोगी सामानों का भी वितरण कार्यक्रम के समापन अवसर पर अथितियों द्वारा किया गया.  इस कार्यक्रम मे वित्तीय सहायता मेरठ संस्थान की एसीएसपी उपयोजना और आयोजक अविकानगर संस्थान द्वारा किया गया.

डा. संजीव कुमार वर्मा नोडल अधिकारी एसीएसपी उपयोजना मेरठ ने उपस्थित किसानों को बताया कि आगे भी भविष्य में टोंक जिले के गाय पालक किसानों के लिए केंद्रीय गौवंश अनुसंधान संस्थान मेरठ इसी तरह के कार्यक्रम अविकानगर निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर के मार्गदर्शन मे आयोजित करता रहेगा.

इस प्रशिक्षण कार्यक्रम के समापन के अवसर पर अविकानगर संस्थान के डा. गणेश सोनवणे, डा. अजय कुमार, डा. लीलाराम गुर्जर, डा. सत्यवीर सिंह डागी, डा. अरविंद, डा. रंगलाल मीना, गौतम चोपड़ा और तकनीकी कर्मचारियों के साथ वेटरनरी इंटर्नशिप भी उपस्थित रहते हुए किसानों किसानो से संवाद किया.

अविकानगर संस्थान की अविशान भेड़ के रजिस्ट्रेशन के लिए करनाल के निदेशक डा. मोहन ने अविशान के सेक्टर्स के साथ किसानों के द्वार भ्रमण करते हुए उस की एक से ज्यादा मेमने पैदा करने की क्षमता को निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर द्वारा दिखाया गया.